Diya aur baati: A poem by Bhargavi Ravindra


0
निस्तबध निशा को चीरती बाती की लौ प्रज्वलित
वह दीये का अंतर्मन
उसकी ज्योति ,उसका दर्पण
पर, उसकी पीड़ा कब समझ पायी नियती !

दीया संग लौ लगा बैठी
तिल तिल कर खुद को मिटाया
नीलाभ छूने को आतुर
क्यों बैरन हवा बुझा गई बाती?

निर्वात में जलती दीप शिखा सी
दीये की वह प्रतिमूर्ति
तम का प्रकोप चूपचाप सहती
जलकर ही है सुख पाती ।

बाती का मौन समर्पण
पाषाण से दीया का आलिंगन
मंदिर की जोत कभी
कभी घर की दहलीज़ पर झिलमिलाती !

रेशम की डोर सी नाज़ुक
चंचल,चपल दामिनी वो
दीये की गहराई में विलीन
जीवन निधी टटोलती !

अंत विहीन उस अनंत में
दीया- बाती का आत्म प्रवंचन
मौन प्रेम की अमर गाथा
अनकही,अनसुनी …सदियों से ….सदियाँ हैं दोहराती !





Like it? Share with your friends!

0

0 Comments

Choose A Format
Story
Formatted Text with Embeds and Visuals