Chalo Chalte hain: A Hindi poem by Bhargavi Ravindra


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चलो इस तंग और ख़ुदपरस्त जहाँ से बहुत दूर निकल चलते हैं
चलो चलते हैं जहाँ हमारी ख़्वाहिशों के,एहसासों के दीये जलते हैं।

जो मैं लड़खड़ा जाऊँ कभी,तुम मेरा सहारा बन थाम लेना बढ़कर 
जैसे, सुदूर उफक में दिन रात एक दूसरे की आग़ोश में ढलते हैं ।

कहीं ऐसा न हो मैं तुम्हें पुकारूँ और मेरी सदा तुम तक न पहुँचे
साँसों की डोर से एक दूसरे को बाँधे चलो हमक़दम चलते हैं ।

ज़िंदगी की जद्दोजहद में,वो सारे लम्हे जो हम जी ही नहीं पाए कभी
आज उन लम्हों को टटोलकर देखें,शायद हमारे खाब इन में पलते हैं।

हम तुम इन राहों पर चलते जा रहे हैं जाने कब से ,कुछ याद नहीं
वक्त से कहो दम भर ठहर जाए,जरा दम ले लें फिर हम चलते है।

लंबा सफ़र है और ज़िंदगी मुख़्तसर ,जाने कब शाम घिर आए
बहुत सी बातें हैं कहने वाली, आओ आज एक दूसरे से कह लेते हैं ।

अब पीछे मुड़कर क्या देखना , अब तक़दीर से क्या शिकायत
माना काँटे चुभते हैं ,मगर, इसके आग़ोश में ही गुलाब खिलते हैं ।

बडी शिद्दत से दुआ की है ये अपना साथ न टूटे ,हाथों से हाथ न छूटे 
मेरे हमसफर !चले चलो जहाँ जमी आसमा एक दूसरे से मिलते हैं ।

आग़ोश – बाँहों में , उफक – क्षितिज , जद्दोजहद – उलझनें,खींचातानी
मुख़्तसर -छोटी सी ,शिद्दत -यत्न से,निष्ठा से , सदा -आवाज़




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