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Ped ka Santaap: A poem by Dr. Aparna Pradhan

 तेज़ हुई आरी की रफ़्तार, पेड़ लगाई सुरक्षा की पुकार
कलियों और फूलों ने मानव के पैरों पर गिर कर
रहम की लगाई गुहार, आंसूओं की भी बहाई धार  
पत्थर दिल इंसान न पिघला, देता रहा मुझे संताप
 
गूँगी बहरी निर्दयी दुनिया में, मैं किसे अपना समझूँ
अपना दुःख और दर्द-ए-दासताँ मैं किसे सुनाऊँ 
हर शख़्स वार करके मुझे जड़ से उखाड़ना चाहता है
स्वार्थी मानव प्रहार कर के असहनीय पीड़ा देता है
मेरी वेदना और चीखें किसी को भी सुनाई नहीं देती
 
क्रूरता से काट कर मेरी शाखें जीते जी मार देते हैं मुझे
ओ बेरहम इंसान – रिश्ते निभाना हम पेड़ों से सीखो  
जड़ो को जब कष्ट देते हो, मेरी कोमल शाखें सूख जाती हैं
मुझे काट गिरा कर मेरी जननी की कोख क्यूँ उजाड़ते हो ?
विरह के संताप से मेरी माँ का मन क्यूँ व्यथित करते हो ?
किसी माँ से पूछो उसके बच्चे के बिछुड़ने का ग़म
 
मुझसे कैसा द्वेष तुम्हारा, जन्म जन्मान्तर का है रिश्ता हमारा
तुम्हारी छोड़ी दूषित सांसे लेकर स्वच्छ हवा नित्य देता हूँ
प्रदूषित पर्यावरण पवित्र बनाकर तुमको जीवन देता हूँ
चुपचाप खड़ा निःस्वार्थ अपना कर्त्तव्य निभाता रहता हूँ 

 मुझे देते रहोगे संताप, सांसों पर तुम्हारी चल जाएगी तलवार