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Mausam: A poem by Madhura Ladkat

मन के ऋतु भी बदलें मौसमों की तरहां,
बिखेरे अपने रंग होली की तरहां।

नव यौवन के सपने बसंत की तरहां,
फूल बिखरे रंग बिरंगी; गुनगुनाएं मन भंवरों की तरहां।

जिंदगी तपाती है फिर उसे ग्रीष्म की तरहां,
बस डटें रहकर छाया धरे किसी तरुवर की तरहां।

मृग की बरसात सुखद आशा की तरहां,
मुश्किलों की आंधियां; छुटपुट बुंदाबांदियां; यह कड़कती बिजलियां;
पर आश्वस्त मन की धरा जैसे वर्षा काल में,
तृप्त होती अवनी की तरहां।

यह शिशिर की मंद पवन कहती है ; हे मन,
कुछ पल तो ठहरं; तसल्ली की रजाईं ओढ़ बैठ अंगीठी  की ओट,
तो रुकीं सी लगे यह जिंदगी पतझड़ जाडे़ की तरहां।

बंद पलकों में सजने लगे हैं सपनें अब बहार के,
बदल रहा है मन ऋतु, बदलते मौसम की तरहां।।