मैं वयस्क हूं
ऐसा तुम्हें लगता है
मैं तो अभी भी
भीतर से वही
एक शरारती, चंचल, नादान,
मासूम, अल्हड़
आंखों में अनगिनत सपने लिए
एक बालक समान हूं
जो सपने लिए
अपने बचपन में जीती थी
उन्हीं सपनों के साथ
आज भी जीती हूं
बिना सपनों के जीना
लगता है असंभव
सपने देखने मात्र से
सब कुछ जीवंत हो उठता है
मन रोमांच से भर उठता है और
असंभव जैसा
शब्द ‘शब्दकोश’ से
हटाकर
ऐसा मालूम होता है कि
जैसे इस जीवन में
कोई चाहे तो क्या नहीं है
संभव
सपने पूरे होते हैं या नहीं
इस जटिलता में क्यों उलझे
सपने किसी भी उम्र के पड़ाव पर
एक बाल मन से ही देखने में
आखिर बुराई क्या है।