एक घने पेड़ की छांव है वह
एक बहती हुई नदी पर
नदी किनारे एक ठहरी हुई नाव है वह
पतझड़ का मौसम है
इस बार कुछ ऐसा कि
उस पर बहार लौटकर नहीं आती
दूसरों के लबों पे
खिलाकर मुस्कुराहटें पर
वह गुलिस्तां की रौनक को
वापिस बुला लाती
जो उसके सम्पर्क में आता
उसके रंग में घुल जाती
शर्बत है वह एक मीठा सा
शबाब उसका तीखा सा
दिल उसका मक्खन की एक डली
शहद सी उसकी वाणी की
मिठास
चलती फिरती एक कायनात की
किसी हूर सी वह
न जाने कोई देवी है
इंसान है या
कोई अप्सरा
परीलोक के सौन्दर्य सी एक
अनुभूति कराती
यौवन की कली उसके समीप
आने से खिल जाती
माथे पर उसके न आती कभी
कोई शिकन की रेखा
जो उसको देखता तो
उसकी अदाओं पर मुग्ध होता
तन से भी सुंदर
मन से भी सुंदर
सुंदरता की वह एक अनुपम प्रतिभा
उसके दर्शन मात्र से लाभान्वित होते
हम जैसे तुच्छ प्राणी और
आमजन।