विरक्ति
दुनिया के घटनाक्रमों से मिल जाती है लेकिन
एक खाली कमरे में
अकेले
एक कोने में बैठकर
अपने ख्यालों से कहां मिलती है
सारे बंधन तोड़कर भी
खुद के तन मन में तो
कहीं पल भर के लिए भी
तटस्था नहीं आती तो फिर
इस दुनिया में रहकर
हम दुनिया से दूर कई बार
भागते क्यों हैं
जो लोग हमारे सम्पर्क में आते हैं और
उनका व्यवहार गर लगातार
खराब होता है तो मन में कई बार
विरक्ति आना स्वभाविक है लेकिन
किसी भी रूप को धारण करना
बस अस्थाई होना चाहिए
स्थाई नहीं
नहीं तो
जीवन नहीं चलेगा
अपना जीवन खुद को चलाना
होता है
इसे चलाने कोई दूसरा नहीं
आयेगा तो
किसी संत, महात्मा या
महापुरुष के लिए
यह विरक्ति के भाव ठीक हैं लेकिन
एक सामान्य मानव के लिए
हालांकि वह भी महान होते हैं पर
यह भाव लम्बे समय के लिए
इस संसार के लोगों के बीच
रहते हुए
सारे सांसारिक क्रियाकलाप करते
हुए अधिक देर के लिए
सम्भव नहीं हैं।