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यादों  का कारवां: ललिता वैतीश्वरन द्वारा रचित कविता

जब जब होता है अंधेरों का सिलसिला

सन्नाटों  की  गूंज का बनता जाता  काफिला

उठने लगता  है  पुराने  खयालों  का  धुआं

तब निकल  पड़ता है  मेरी यादों का  कारवां

 

उन उजड़ी  गलियों और खंडहरों की रेतों पर

कभी लहलहाती हरी फलती  खेतों पर

दूधिया चाँदनी की रोशनी में लिपट,हुआ था जवां

एक कसक की हूक में बसता यादों का  कारवां

 

कितने हसीं  थे वो बीते हुये सुकून के पल

ऐसा लगता है गोया अभी अभी बीता कल

तुमसे मिलना हो जैसे कोई उफनती रूहे रर्वाँ

कशिश से बंधा मेरी यादों  का कारवां

 

तसव्वुर में  बसे हैं कई आबाद खयालों के शहर

बेचैन करती हैं तुम्हारी यादें शाम -ओ -सहर

कुछ भी नहीं मेरा अब सब कुछ तुझ पर दिया गँवा

ज़रा धीरे  धीरे  मचल  मेरी यादों के कारवां