यादों का कारवां जब दिमाग की दहलीज़ पार कर दिल से होते हुए गुज़रा,
सब कुछ रह गया ठहरा-सा , वक़्त, मैं और यादों कारवां,
जैसे कोई घनघोर कोहरा या कोई अनमोल पोटली जो निकली है जीवन की अटूट सहेली!
कभी दौड़ जाती हैं बचपन के किस्सों में तो कभी नादानी से भरे लिखे डायरी के पन्नों में,
कभी उन लिफ़ाफों से भरे अनगिनत कार्ड्स और चिट्ठियों में।
घूमते-घूमाते आती हैं वह वापस मुस्कान लिए मेरी भीगी पलकों में!
कभी माँ-पापा के कमरे की हर चीज़ याद आती जहाँ गुज़ारी थी बहुत-सी अल्हड़ नाराज़गी!
फ़िर वह यादों भरी पोटली पहुँच जाती छत पर जहाँ होती थी किताबों की पढ़ाई-लिखाई।
कभी दोपहर में आइसक्रीम वाले की आवाज़ पर माँ से पैसों की लड़ाई।
प्यार और छोटी-मोटी टकरार भरी भाई बहनों से की हुई पिटाई।
बहुत याद आती है वो यादें पुरानी जो अक्सर लाती है आँख़ों में पानी!
गर्मियों की छुट्टियों में दादके और नानके संग बचपन का ज़माना और ढेर सारी बातें और कहानियाँ सुनाना,
फ़िर उम्र के उस पढ़ाव पर आना जब दोस्तों के संग होटल में जाना,
ढेर सारी मस्ती और ख़ूब बातें बनाना।
वह होली में भीगकर, ताईजी के मालपुए खाना और दिवाली में थालियों भरे दीए जलाना और लोहड़ी में देर रात तक गाने गाना।
कई और उत्सव और इकत्तीस दिसंबर की मौज-मस्ती वाला समां,
सब कुछ ठहरा-सा रह गया, वक़्त, मैं और यादों कारवां!