मां की कांच की वह हरी हरी चूड़ियां


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मां की चूड़ियां

मैं जब पहनती हूं

अपने हाथों में तो

वह आज भी खनकती हैं लेकिन

मेरी मां की आवाज मेरे कानों को

नहीं सुनती है

मां के न रहने पर

मैं हूं अपनी मां की

प्रतिछाया

जब तक रहूंगी जीवित

संभाल कर रखूंगी उनकी

मुझे सौंपी हुई हर एक धरोहर

मां का सामान देखूं

मैं जब जब

चाहे हों वह उनके वस्त्र,

गहने या

कांच की उनकी वह

हरी हरी चूड़ियां तो

उनकी छवि एक सुहागन सी

उभर कर मेरी आंखों के

समक्ष आ जाती है

समय कैसे पल पल करवट

लेता है

एक जीता जागता

आदमी नहीं रहता

बेजान वस्तुओं का जीवन

उनसे भी कुछ लंबा चल

जाता है

मां अब नहीं हैं हमारे बीच लेकिन

उनकी चूड़ियां जब खनकती हैं तो

उनकी यादें एक सावन की

बहार सी मेरे मन के घर आंगन

में तो अवश्य ही बरस जाती हैं और

उसमें हरियाली की एक बयार लहरा जाती है।


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