किसी नदी के
तैरते जल के दर्पण में जो
झांककर देखो जो अपनी छवि तो
मेरी आंख
अपने सिवाय
उस नदी के मन के भीतर भी
कहीं झांक लेती है
उसमें तैरती एक मछली,
एक जल की तरंग और
एक छोटी नाव को भी
देख लेती है
नहीं रहती फिर वह
खुद तक ही सीमित
अपने अस्तित्व से परे
वह सारी जमीन
सारा आकाश
सारे नदी के जल के
रहस्यों को जान लेती है
एक तितली सी उड़कर
बैठ जाती है
नदी किनारे अभी अभी उगी
दूब की नोंक पर ही कहीं
एक आत्मा के वजन के
बराबर हल्की होकर
हवाओं संग उड़ जाऊं या
जल की तरंगों संग जल तरंग
बजाती कहीं दूर देश की
सैर पर निकल जाऊं
यह एक सागर के जल की गहराई सी सोचती है।