क्या मैं अपने घर के कमरे से उठकर
सच में एक जंगल की तरफ जाऊं या
किसी जंगल की एक कोरी कल्पना को
अपने अंखियों के झरोखों तक
उठाकर ले आऊं
अपने दिल के वीराने में ही
उगा लूं मैं
जंगल घने पर उजड़े से
एक पहाड़ी पर चढ़ जाऊं फिर
उस पर ही टिके किसी पेड़ पर
पेड़ की टहनियों में उलझ जाऊं
उसकी लकड़ियों को बीनकर ही
अपने रहने के लिए एक आशियाना बनाऊं
एक कोयल की तरह कुकू
इंतजार देखूं मैं किसी राहगीर का
मेरी आवाज की गूंज लौटकर
मेरे पास ही वापस चली आये
यह मुझ बेबस पर क्यों भला
इतना सितम ढाये
मुझे तन्हाई में बेवजह इतना
क्यों रुलाये
मेरे मन के कोने में फिर
कांटों के झाड़ उगाये
कोई फूलों से महकता
एक चंदनवन क्यों न उपजाये।