कहने को तो
जिंदगी जीने के लिए मुझे
मिली हुई है पर
पता नहीं क्यों
मैं चाहती नहीं कि
इससे कोई शिकायत करूं लेकिन
मुझे इससे बहुत सारी शिकायतें हैं
सबसे बड़ी तो यह है कि
मुझे लगता है कि
मेरी जिंदगी का आगाज़ हुआ ही
नहीं है और
वह कभी अपने मुकाम तक
पहुंचे बिना
यूं ही किसी दिन खत्म हो जायेगी
उसका अंजाम कुछ अच्छा नहीं
होगा
जब आगाज़ ही नहीं हुआ तो
अंजाम तक पहुंचेगी कैसे
घर से निकलो
वापिस घर ही लौटकर आ
जाओ और
किवाड़ की सांकल लगाकर
अपने कमरे में बंद हो जाओ
कुछ कदम उठाओ
आगे बढ़ो
वापिस लौट आओ
जो आगाज़ वही
अंजाम
जो सफर वही मंजिल
जो दिन वही रात
समय की रेखा पर पड़ रहे
बिंदु तो सारे समान हैं
एक गोलाकार घेरा सा है
कोई भी सिरा पकड़ लो
कहीं से भी शुरू कर लो
खत्म उसी सिरे पर आकर
सब कुछ हो जाता है
सुबह के समय उगता सूरज
और शाम के समय डूबता सूरज
बिल्कुल एक से दिखते हैं
आगाज़ और अंजाम भी
दो हमशक्ल हैं
समय की आंख से गर न
देखें तो कई बार तो शायद
पहचानना भी भारी पड़ सकता है
कभी किसी अनाड़ी को।
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