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अवहेलना करी तो किसकी

अवहेलना करी तो किसकी

एक चारों दिशाओं में प्रकाश बिखेरते

सुबह के उगते सूरज की,

अंधकार की नहीं!

एक गुलशन को महकाते

चहुं ओर खुशबू बिखराते फूलों की,

कांटों की नहीं!

एक मोम से पिघलते हुए

किसी के कोमल हृदय की,

पत्थर की नहीं!

एक मन मंदिर में विराजे

इंसान के रूप में भगवान की,

प्रभु की नहीं!

एक कोयल सी मधुर धुन में

गाती वाणी की,

कौवों की जमात की नहीं!

एक सुंदर दिल, चेतन मन और

महानतम चरित्र की,

चांद से चमकते पर भीतर से कहीं

मैले चेहरे या तन की नहीं!

हे दो आंखों वाले मानव!

तेरी आंखें खुली हैं तो

उनके द्वारा हर चीज को

सही प्रकार से देखने का अभ्यास तो

कर,

आंखें होते हुए भी तू तो

अंधा है,

अज्ञानी है,

अंधकारमय एक सुरंग में

रहता है,

उससे बाहर निकलने का

तनिक प्रयास तो कर

और चारों ओर बिखरे

प्रकाश को अपनी अंजुलि में

भरकर

एक प्रसाद सा ग्रहण करने का

खुद में साहस तो भर।