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अमृत: अनिल कुमार श्रीवास्तव द्वारा रचित कविता

जड़ चेतन अवचेतन अमृत
महत्ती जीवन प्रेम-सुधा वस,
बहता निर्मल गान प्रणय-बीच
बसु बसुधा यह प्राण-सुधा वस ।

ज्ञानामृत अभिषेक सदाशिव
विष कलुषित अपविष्ट अज्ञान,
गरल सुधा जीवन बीच बरसे
धारण अमृत सकल सुजान।

भोग-अभोग अमृत रस उपजे
अज्ञानी शंकित उर गरजे,
भाव-भंगिमा स्थिर-चित्त सद्गुण
शिव अविनाशी उर-धरि ज्ञानी हरषे ।

कलयुग मोहे छल-बल विचरे,
विष अवगुण अज्ञान व्यष्टि का,
शिव अमृत-गुण नव- नित्य निखरे
अमृत हृदय सारंग समष्टि का ।

ज्ञान मोक्ष-सम उदरावर्त अमृत का
जागृत कुण्डलिनी अनहद व्योम सा,
मुखरित अंतर ज्ञान-चक्षु और
अमृत अमरत्व का द्वार ज्ञान-सा ।