अपनी ही अनगिनत छवियों का मेला


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कितना अच्छा हो ना कि

मैं खुद की पनाहों में ही कैद हो जाऊं

मैं खुद में ही कहीं जज्ब हो जाऊं

मैं खुद में ही कहीं समाहित हो जाऊं

मैं खुद को पहचानूं

खुद को पा लूं

खुद को तलाशूं

खुद को संभालू

खुद को अपने साथ लिए

जीवन की डोर को खींचकर

मंजिल की तरफ बढ़ा लूं

हर किसी में अपना अक्स देखूं

हर दर्पण को अपना हमसफर बना लूं 

अपनी ही अनगिनत छवियों का मेला साथ लेकर चलूं

कभी न तन्हा महसूस करूं

न किसी से कोई शिकवा

शिकायत करूं।


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