अतीत के वृक्ष की छाया में


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अतीत के वृक्ष की छाया में ही

चलो जी लूं कि

वर्तमान में तो

मेरे चारों तरफ

पतझड़ का मौसम और

पेड़ से झड़ रहे

मुझ पर गिर रहे

मुझ पर टूट कर बरस रहे

पत्तों की मार है

पत्ते भी मुरझाए से

कंकाल से

जर्जर से

बिना सांस

बिना जीवन

बिना आस

कैसा यह कहर

कैसा यह प्रहर

कैसा यह जीवन का सफर

अतीत की चंद यादें

खुशनुमा चाहे थी वह

दर्द में डूबी

गमजदा

संग मेरे न हों

एक परछाई सी तो

मैं मर ही जाऊं

हर सू फैली

एक वीरान रेगिस्तान की

एक नाग सी डसती

तन्हाई सी।


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