Ummeed: A poem by Dr. Charu Kapoor


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सूनी सड़कें, सूने कूचे, सूने हुए हैं गलियारे

कहां गईं सब रौनकें, कहां गए हैं शहर हमारे

रंगीन सपने लिए आंखों में, गांव छोड़ यहां मैं आया
बाहें फैला इस शहर ने, बड़े प्यार से मुझे अपनाया

मैं ही था जिसने गांव का पहला पक्का घर बनवाया
शहर में पैसे कमा कर बेटी को पढ़ाया और लिखाया

तेज़ भागती ज़िन्दगी को किसकी है नज़र लगी
वक़्त मानो रुक गया, ज़िन्दगी भी सहम सी गई

मर्ज़ कैसा है कि जिससे कायनात में उत्पात हुआ
हर शक्स अपनी जान बचाता चारदीवारी में क़ैद हुआ

काम धंधा न रहा, हर बशर बेक़स, मजबूर हुआ
रोजी रोटी न रही, पापी पेट अपना दुश्मन हुआ

कैसे अब बसर होगी, अब कैसे यहां रह जाऊंगा
पेट पर गीला तौलिया बांध कितनी रातें सो पाऊंगा

दाने दाने को मोहताज, अपने गांव लौटकर है जाना
मीलों दूर मंज़िल सही, ऐ दिल! तू न घबराना

ग़म के बादल कुछ देर के हैं, अब छंट ही जाएंगे
अच्छे दिन मुझे फिर यहां वापस लेकर आयेंगे

उम्मीदों की गठरी बांध, दिल में लिए यही इरादा
जल्द ही वापसी होगी, अलविदा मेरे शहर!अब रब राखा!




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