माँ कहती है यहाँ इतराती बलखाती बहती थी इक नदी
हिलोरें लेती, धरती को परी लोक सी समृद्ध, पावन करती
जीवन को कर्तव्यों से आबद्ध, गति प्रदान करती थी…
मौसम की खुमारी में हर ऋतु सुहानी थी।
पक्षियों के कलरव से तन्द्रा की उबासी होती दूर
वह प्रभाविनी, जिसे चूमने को मेघ बरसते मदमस्त,
कमालिनीं खिलती, सावन सी हवा मल्हार गाती
अब दरख़्त सूख गयें, हर पल भरी दोपहरी है
जीवनप्रदायिनी अमृतदायिनी निर्झरिणी,गोद में जिसके
सभ्यता के विकास की गाथा पनपी थी
अब, सन्नाटों की बस्ती है।
कैसा यह बदलाव? कैसी प्रगति? कैसा विकास?
बस्ती आसमानों में बसाने की चाह में, धरा बंजर हो रही
नदी सूख गयी, माँ कहती है यहाँ कभी कश्ती तैरा करती थी
ढूंढ रही मैं नदिया को इस पार और उस पार
ज़ख्म की सी. निशान सी नदी पथरा गई है।