Matritva: A poem by Manisha Amol


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मेरी ज़िंदगी की दरख़्त को,कुछ सींचा इस तरह;
जड़ों को मज़बूत किया,और फैलाया जिस तरह;
ऐसी उर्वरक मिट्टी में रोपा, कि मैं पनपती रहूँ;
वक़्त पे खाद और क़ीमती धातु भी,तूने मिलाया बख़ूब।

ठंड की कंपकंपाती रात भी आसानी से झेल पायी,
भीषण गर्मी की ताप भी मुस्कुरा के सह पायी।
पतझड़ के थपेड़ों से कुंभला जाती हूँ अगर,
बहार के आते ही खिल जाती हूँ इस क़दर।

आज एक विशालकाय वृक्ष बन खड़ी हूँ,
लहलहाते शजर,घने हरे पत्तों से लदी हूँ,
अपनों को संबल और छाया भी दे रही हूँ,
पुष्पों से पूरित उपवन सा महक रही हूँ।

मातृत्व के इस महत्वपूर्ण अटूट बंधन को,
तुमने है निभाया खोकर अपना सर्वस्व को,
पार लगाया है तूने मेरे जीवन की नैया को,
तैयार हूँ आज हर परिस्थिति से लड़ने को।

सीखा है मैंने कैसे निभाना है इस कार्य को,
आगे बढ़ाना है अपने इस परिवार को।
मातृत्व का प्रकाश जो जागा है तन में,
दीप्तमान संस्कार भरना है उसके मन में!





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