Main sirf ek rishta nahin hoon: A poem by Bhargavi Ravindra


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आईने के सामने खड़े होकर मैं अक्सर आईने से पूछती हूँ –
क्या वो पहचानता है मुझे और मेरे अस्तित्व को
मेरे अंतर्मन के दर्द की चुभन को, मेरे व्यक्तित्व को
मेरे माथे की हर शिकन को ,मेरे अहम को, स्वामित्व को ?

अपने घर की दीवारों से मैं अक्सर पूछती हूँ –
क्या वो जानता है मेरी ज़िंदगी के हर चढ़ाव -उतार को
लम्हा दर लम्हा उम्र बहा ले गई उस वक़्त की तेज़ रफ़्तार को
मेरी आशंकाओं और आशाओं के बीच खड़ी दीवार को ?

मैं अपने इर्द-गिर्द फैली हुई खामोशी से अक्सर पूछती हूँ
क्या सुनी है उसने थकीहारी गुजरते शाम की आहट
वादी में चहलक़दमी करते सन्नाटों की आहट
शाख़ों से झरते सूखे पत्तों की सरसराहट ?

क्योंकि , इन सब में कहीं न कहीं ‘ मैं ‘ हूँ
मगर ,कहाँ हूँ मैं ?क्यों मैं दायरों में बंध गई हूँ ?
समाज की बेड़ियों ने मुझे क्यों जकड़ रखा है ?
क्या मैं सिर्फ़ रिश्तों ही से पहचानी जाऊँगी?

नहीं, मैं सिर्फ़ एक ‘रिश्ता’ नहीं हूँ
इस विशाल ब्रम्हाण्ड में -मैं ….
तृण मात्र ,धूल मात्र ,तुहिन कण मात्र या बिंदु मात्र ही सही 
; जब तक मैं हूँ ,मेरा अस्तित्व भी है , और ,यही अटूट सत्य है!




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