तब मैं समझ न पाई ,समझने की वो उमर भी नहीं थी
और , तब शायद इतनी समझ भी नहीं थी
पर आज उमर की सीढ़ियों को पार क रते
ज़िंदगी का एक लंबा सफर तय करते
आज मैं जिस मक़ाम पर पहुँच पाई हूँ
ये उनकी बदौलत ही कर पाई हूँ।।
ये जो कविता,शेर ओ शायरी का जु नून है
और मेरी इन कविताओं में जो सुकू न है
ये उन्हीं की दी हुई विरासत है
उनसे मिली ये दौलत है ।
मुतासिर करने वाली कोई तो बात थी
दिल को छू लेने वाली एक सौग़ात थी ।
जब भी अपना बचपन याद आता है
एक चेहरा आँखों के सामने घूम जा ता है
साफ़ सुथरे पन्नों पर वो बेतरती ब सी लिखाई
बचपन की मासूमियत में तब बात सम झ न आई,
हम क्या कहना चाहते थे अपनेआप से
मगर बिना कहे वो समझ गईं,चूपचाप से!
आज जब इतना सबकुछ लिखने बैठी हूँ
ख़्वाब है कोई या हक़ीक़त ,सो चती हूँ
वो उनके मिज़ाज मे , बातों में मिठास
आज वो मुझसे बहुत दूर है,मगर लग ता है –हैं आसपास
हिंदी से कैसे जुड़ गई मैं,अकसर सोचती थी मन में
मगर,आज इस उमर में ये बात समझ आ ई….कुछ तो ख़ास था उनमें !