Gulaal: A poem by Dr. Charu Kapoor


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अबीर गुलाल मोहे कुछ न भाए

टेसू पलाश जी भर अब सताए
नयनों में कारे बदरा हैं छाए
फागुन आया, संग तुम न आए

रंगों से जाकर यह कह दो
कुछ और रंगें, यूं न तड़पाएं
तिल-तिल जलते बीता हर इक पल
मौसम बदले,युग बीते ही जाएं  

सतरंगी ओढ़नी पहन कर जब
कायनात बड़ा कहर है ढाए
बागों में कोयल की कूक से
विरह की हूक ही पड़े सुनाई

आ भी जाओ इस होली पर
अपने ही रंग में डालो रंग
 तड़प रही कब से मैं प्यासी
 भीग जाऊं अपने पिया के संग

 लाल गुलाल लगा तन मन पर
 ऐसा कर दो तुम मोहे निहाल 
 रंग चढ़ा फिर कभी न उतरे
 इस जोगन का यूं करो सिंगार..



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