Diya aur baati: A poem by Nisha Tandon


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एक रवायत है ये कि संग जलना है हमें
रिश्ता तेरा-मेरा महज़ रूहानी ही तो है
कहने को अंधेरे के बाशिंदे हैं हम मगर
हमसे ही ये आलम नूरानी भी तो है

जलकर ही तो रोशन इस जहाँ को करना है हमें
इस क़दर एक तक़दीर से बंधे हुए तुम हम है
अधूरी है प्रीत हमारी एक दूसरे के बिना
वक़्त की आँधियों से लड़ते हुए परिंदे हम हैं

ग़र आफ़ताब का नायाब अक़्स हूँ मैं
तो धरा का अप्रतिम रूप तू भी तो है
सफर होता है अधूरा ग़र ज़माने की ना हो रज़ा
मुझे सम्पूर्ण करे वो माँझी मेरा तू ही तो है

छोड़ कर तनहा तुझे बुझ जाती हूँ मैं अक्सर
क़िस्मत में लिखी ना जाने ये जुदाई क्यूँ है
हसरत लिए अधूरी फिर होती हूँ मैं रुख़स्त
तेरी मेरी मुलाक़ात आख़िर मुख़्तसर सी ही तो है

साँझ होते ही रक़्स नायाब है मेरा
सहर होते ही मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है
मैं बुझती हुई बाती हूँ तू दिया है मेरा
जिसमें हो बसेरा वो साहिल मेरा तू ही तो है




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