बारिश की बूँदों में फिर से चेहरा वह नज़र आया
छूट गया था पीछे जो कुछ, बिन दस्तक लौट कर आया
क्यों बारिश हर बार मुझे उस दहलीज़ पर ले जाती है
सीली-सीली यादें क्यों मेरा तन मन भिगो कर जाती हैं
उस रोज़ भी ऐसी ही मूसलाधार बरसता हुई
कालेज की सीढ़ियों पर जब पहली मुलाकात हुई
ऐसा लगा कि बरखा मानो ऐसे ही पड़ती रहे
वक्त जैसे थम जाए, धड़कनें यूँ ही बढ़ती रहें
आधे सूखे, आधे गीले लम्हों की जैसे सौगात हुई
कहने को जब कुछ न था, बस आँखों में ही बात हुई
उसी रोज़ से मुलाकातों के सिलसिले शुरू हुए
ऐसा लगा बरसों पहले से थे हम मिले हुए
मन में बढ़ते तूफानों पर उफान जैसे आने लगा
उनसे मिलने के बहाने दिल तलाशने लगा
क्या हुआ, एक रोज़ अचानक ऐसे तुम मुँह मोड़ गए
आवाज़ बहुत दी, फिर भी तुम मुझे अकेला छोड़ गए
हर बार बरसात मुझे फिर उन्हीं सीढ़ियों तक ले जाती है
कभी मिलन, कहीं जुदाई, मुझे फिर आईना दिखाती है…