दुख की घड़ी में
जब सांत्वना देने वाला कोई नहीं था तो
मैंने खुद से ही दोस्ती कर ली
खुद का हाथ थाम लिया
खुद को अपना लिया
प्रभु का स्मरण किया और
अपना दर्द खुद के साथ ही बांट लिया
दिल का दर्द कुछ कम हुआ
तन भी फूलों की भीनी भीनी सुगंध सा महका
सजने सवरने की तमन्ना मन के किसी दबे कोनी में जगी
श्रृंगार कर, खुद को थोड़ा सा निखारकर
एक दर्पण में अपनी ही छवि निरंतर देखने की
तीव्र इच्छा अंतर्मन में उठी
अपनी आंखों पर पड़ा पर्दा हटाकर
बाहर की दुनिया में
पतझड़ के मौसम में बहार,
कांटों के जंगल में फूलों का एक सजा हुआ बाजार,
खुद में खुदा, खुदा में एक दुआ
बरसाता संसार कोई चाहेगा तो अवश्य दिखेगा।