जीवन के उस मुकाम पर
पहुंच चुकी हूं कि
अमृत और विष में कोई अंतर
महसूस नहीं होता
विष पीती हूं पर
उसका असर भी मुझ पर नहीं होता
मैं कोई राधा नहीं
न ही है मेरा कोई कृष्ण लेकिन
यह सारी सृष्टि मेरी और
मैं हूं ऐसी अमृत धरा की कोई हीर
कोई विष के बाण जो मुझ पर चलाता है तो
नहीं जानता कि
मुझे अमृत का पान कराता है
मैंने स्वयं का आत्म मंथन कर
लिया है इतना कि
देवता हो या असुर
हर कोई मुझे अमृत का स्वाद ही
चखाता है
एक विषैला सर्प भी मेरे सानिध्य में आकर
अपने विष का त्याग कर
एक शिव बन जाता है और
मेरी तपस्या की राह में
मेरे भक्तगणों को अमृत वितरण के
कार्य में
विष को अमृत में
परिवर्तित करने के
एक महानतम कार्य में मेरा हाथ
बंटाता है।