दर्पण में
खुद की छवि निहारकर
मैं खुद को ही पहचानने की
कोशिश कर रही हूं
दर्पण को मैं अच्छे से
पहचानती हूं पर
इससे बेशक पूछकर देख लो
उत्तर दे पाने की स्थिति में गर
यह होता
गर यह बोल पाता तो
इतना तो मैं इसके साथ रहकर
इसे जान गई हूं
कहता कि यह मुझे नहीं पहचानता
किसी से रोज मिलने के बावजूद
उसके साथ सदियां,
जीवन का हर एक पल गुजारने के
बावजूद
उससे संवाद करते रहने के बावजूद
हम भला उसके बारे में कहां कुछ जान पाते हैं
उसे ठीक प्रकार से कहां पहचान पाते हैं
यह जिज्ञासा होती है
किसी किसी में
सबमें नहीं जो
किसी से किसी की पहचान करवाती है
उसकी खुद से पहचान भी करवाती है
कई बार हम दूसरों के चेहरे पढ़ने में
इतने मशगूल हो जाते हैं कि
खुद की किताब के पन्ने पलटना भूल
जाते हैं
उसमें रखा अपना कटा फटा पहचान पत्र
जब कहीं रख देते हैं तो
अपनी अतीत की धुंधली तस्वीर की
कई बार पहचान भूल जाते हैं।