सागर किनारे
चलो घूमते हैं
सागर के बारे में
कुछ सोचते हैं
यह एक जल की धारा का ही
कोई बड़ा रूप है या
कुछ है और
सागर की रेत पर
खड़े खड़े क्या कोई यह जान पायेगा या
फिर उतरना होगा आगे बढ़कर
इसकी गहराइयों में
सांझ का सूरज तो देखो
डूब रहा है और
बिना किसी डर के
समा रहा है इसके आगोश में
सागर से मिलकर
रात भर उसकी तलहटी में गुजारकर
यह तो सीना तानकर
अंगड़ाई लेता हुआ
पूरब दिशा से फिर
उग आयेगा अगली सुबह
इस आसमान की
चादर पर रंग बिखेरने
मैं सूरज की तरह
हिम्मतवाली और ऊर्जावान नहीं हूं
किसी से मित्रता या उससे संबंध निभाने के लिए
अपनी जान जोखिम में नहीं डाल सकती
मैं तो सागर की लहरों को
दूर से ही सलाम करती हूं
रोज आती रहूंगी सागर किनारे और
मिलती रहूंगी इसके अनसुलझे रहस्यों से
आहिस्ता आहिस्ता जान ही जाऊंगी
एक दिन इसके सारे राज वह गहरे जो
शायद फिर यह भी नहीं जानता होगा
सब कुछ जानकर भी पर मैं इसे
किसी से नहीं कहूंगी
न ही इसके साथ कोई बेवफाई करूंगी
न मेरी इससे मोहब्बत कम होगी
न ही कहीं मुलाकातों का यह सिलसिला
थमेगा
इसकी कमियां जानकर भी मेरा व्यवहार
इसके प्रति जस का तस बना रहेगा
कहीं से इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा।
in Hindi Poetry