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लहराते वो खेत: उमा नटराजन द्वारा रचित कविता

चन्द्रमा की  शांत शीतलता और तारों भरी  बेला यामिनी की
नभ की ओर तकती, दो प्यासी अँखियाँ स्वेद कण बहाते कृषक की
 प्रतीक्षारत हर पल उसके नयन, गड़गड़ाहट और सुगबुगाहट लिए दामिनी  की
अब कृषक की चिंता  माटी की कठोरता और सख्त पड़ती उसकी नाडिय़ों की
आज की नयी भोर ओस में नहायी धुलायी, कुछ मेघों का अट्टहास लिए
लुका-छिपी खेले भास्कर, अबंर में छाया ध्युतियों का मेला, परिहास लिए
मेघ मल्हार के संग, फुहारों और बुदबुदाती बूंदाबांदी का सुहास लिए
कृषक के उर में, हिलोरें लेता नव तरंगों का एक अलौकिक उल्लास उन्माद लिए
खेत की परती खुशहाल और प्रस्फुटित अंकुरों का फैलता नव संगीत
मेघों के उमड़ घुमड़ से, कृषक के मुख का नीरव विषाद होता तनिक लुप्त
अब मुखर हो रहा, विरही दादुर का शोर कुछ  आलोकित और उत्कंठित
मेघों का नभ चंचल अति लुभाये मोर एवं केकी को करके प्रफुल्लित
अब वसुंधरा में फैला उर्वरा का जादू, हरियाली  चादर ओढ़ वह शरमाई
नई फसल लहलहाई, दूर तक विहंगम छटा बिखर कर लहलहाई
 कृषि भूमि भी नव यौवना सी करके हरियाली का श्रृंगार इतराई
धरती माता की गोद ने मिट्टी की महक और आंचल ने दुलार  चहुँ ओर टपकाई