शून्य के वृत्ताकार पथ पर
पथिक लौट कर फिर वहीं आता है।
धरती के भौतिक स्वभाव से
वही बारम्बार एक सी गति पाता है।
वही रंग हैं नीले पीले लाल गुलाबी
चम्पई और धूल धुसरित राख से
पर लालसा हर चटक रंग की उसे
अन्ततः राख जन्य हो ही जाता है
हाँ,रंगों की सौगात कुछ नयापन
ले आती है, वो कभी कृष्णमय कभी
राममय तो कभी शिवमय हो जाता है।
पर कभी कभी वो निराशा के अन्धकार में
तमस के प्रभाव से
धरती के सकारात्मक रंगों के विमुख हो
पथभ्रष्ट और विकारी बन जाता है।
पर है तो वो आत्मतत्व ही !
रंगों के सौगातें जीवन का बोध हैं
पर आत्मज्ञानी इन सबसे विलग
न कोई उस पर इनका असर
कहाँ चला रंगों से हो पृथक!!