रंग लगाता रहा मैं
अपने चेहरे पर
उम्र भर
कभी लाल, कभी पीला
कभी नीला, कभी हरा
मैं ऐसा करने से
एक विदूषक बन गया
अब सोचता हूं
अपने जीवन के आखिरी पलों में कि
मैंने ऐसा आखिरकार
उम्र भर किस मजबूरी के तहत किया भयभीत था मैं समाज से
इस दुनिया से या
खुद से
यह रंग पर अब उतरने नहीं
इतने पक्के हो चुके हैं कि
यह मुझे अब छोड़ते नहीं
मेरा अस्तित्व
मेरे अपने व्यक्तित्व
के विभिन्न पहलू और रंग
मेरा जीवन
मेरी आकांक्षायें
मेरे सपने
सब कुछ तो दब गया है
छुप गया है
कुचल गया है इनके नीचे
आकर
मैं खुद को समझता था
बहुत होशियार
न जाने सारे जीवन
मैं क्या यह रंगों का
खेल खेलता रहा
अंत में क्या हाथ लगा
शून्य
श्वेत व श्याम परछाइयों के
कुछ दृश्य
मेरा अपना कहीं कुछ भी नहीं
सच में
अब सोचता हूं कि
मुझसे बड़ा अनाड़ी जो
कभी खुद को समझता था
एक मंझा हुआ खिलाड़ी
इस दुनिया में कोई दूसरा
नहीं होगा।