मैं जिन्दगी के रेगिस्तान में
भटकती भटकती
इतनी परेशान हो चुकी हूं कि
मेरे चेहरे पर अब सिर्फ उदासी दिखती है
न लबों पर मुस्कुराहट के कंवल
खिलते हैं और
न ही आंखों में कोई अश्रु की धारा
बहती है
मरुस्थल में भी लगता है
घोर सूखा पड़ गया है
आसमान के बादल भी
न जाने कहां उड़ गये
न जमीन पर और न ही आसमान में
कहीं भी एक पानी की बूंद नहीं
मेरा दिल एक दुख का गहरा सागर
बन गया है लेकिन
आंखों के सारे तालाब सूख गये हैं
मैं अब कितना बड़े से बड़ा दुख देख लूं
लेकिन रो नहीं पाती
दुख से तिलमिला जाती हूं लेकिन
अपनी आंखों से एक बूंद आंसू का
टपका नहीं पाती
मेरी आंखों में नमी न पाकर
कोई मुझे पत्थर दिल समझ सकता है
लेकिन कोई समझना चाहे कि
मैं चाहे पत्थर की बन चुकी
हूं
चाहे मेरी आंख
चाहे मेरे आंसू
सब कुछ एक कठोर चट्टान सा बन
चुके हैं लेकिन
मेरे हृदय से अब भी
एक सुरमई झरना प्रेम का
निरंतर बहता है
सम्पूर्ण वातावरण को संगीतमय और
सुगन्धित बनाता हुआ
शायद यह मेरे आंसुओं का ही
एक दरिया है जो
मेरी आंखों की बजाय अब मेरे
दिल से फूटता है।