in

प्रेम पत्र: संगीता गुप्ता द्वारा रचित कविता

 वह प्रेम पत्र ही तो था
मेरे मन के तारों को झंकृत कर
    नवविवाहित सी रहस्यमयता लिए
     हवा में तैरता
      हम दोनों के प्रेम प्रसंगों को मुखरित करता
       औंधे मुंह धरा पर जा गिरा 
       मेरे चेहरे की झुर्रियों की भांति
        उसकी भी थी जीर्ण शीर्ण अवस्था 
        धूमिल पडे मनोयोग से लिखे प्रेमाक्षर 
        अचानक प्रखर हो उठे आंखों पर चढ़े चश्मे की ज्योति में
         वह अलहड से अक्षर और उनसे निर्मित रसिक्त भाव
          मधुर प्रेम बेला का साक्षी बन सजीव हो उठे
           वह महकती पुष्प लतायें, वह चिड़िया का चहकना
             वह सावन की रिमझिम बरसात में भीगे तन मन  
कहां गए वो दिन 
वह विरह की रातें बीतती थी जो तारे गिन 
वह शर्माना, वह लजाना ,वह छुप छुप कर मिलना,
              मिलना, बिछड़ना ,फिर मिल जाना ,
              प्रेम पथ पर विचरित करती रंग जाऊं फिर
              प्रेमवश
               नवपटल पर नवस्याही से लिखूं मैं एक नव प्रेमपत्र
       लिखू मैं एक नव प्रेम पत्र