वो प्रेम पत्र जब लिखने बैठी,
धड़कनों में एक कंपन थीं।
अधरों में एक सिमटी मुस्कान,
मन में भरी सकुचाहट सी।
आसां ना था बयां करना,
शब्दों में उन अहसासों को।
भावनाओं ने भी दिया ना साथ,
छुड़ाया अभिव्यक्ति ने अपना हाथ।
कलम की स्याही भी सूखती गयी,
ना इज़हार हो पाया,ना इकरार कर पायी।
उद्वेलित मन में एक द्वंद्व सा था,
सिर्फ़ तकरार ही बाहर आयी।
ये डर भी शायद था उसके मन में,
की कहीं ये अस्वीकृत ना हो जाए।
खुश थी वो जिस प्रेम के भ्रम में,
कहीं वो सपना बिखर ना जाए।
कुछ लिख ना पायी,लगा असंभव,
और बेचैनी बढ़ती गयी मन में!
कोरे काग़ज़ को ही सहेज कर,
भेज दिया एक बंद लिफ़ाफ़े में…