अपनों को अपना
मानती हूं
उनसे दिल से सच्चा प्यार
करती हूं
अपने मन को
लाख समझाती हूं पर
जाने अनजाने फिर
लौट कर उन तक पहुंच जाती हूं
फिर मार खाती हूं
मायूसी हाथ लगती है
उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं
पाती हूं
दिल को चोट लगती है
कोई प्यार,
कोई अपनापन,
कोई सहानुभूति नहीं मिलती है
लेकिन
मैं भी आदत से मजबूर हूं
प्यार को तलाशती रहती हूं
अपनों में
इस दुनिया के हर इंसान में
सब में लेकिन
निराशा ही हाथ रखती है
लेकिन मन से धन्यवाद देती
हूं प्रभु का कि इतने तिरस्कार
के बाद भी कहीं किसी को
प्यार करना मैं कहीं न
कम करती हूं।