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दुविधा

मेरे मन के हैं

दो कोने

एक सुख दूसरा दुख

मैं जमीन पर पड़े पानी में पड़ती

अपनी परछाई से चलो आज पूछ ही

लेता हूं कि

मेरे चेहरे को जरा गौर से देखो और

बताओ कि इस समय मैं तुम्हें कैसा

लगता हूं

सुखी या दुखी

कोई जवाब नहीं आता क्योंकि

मैं शायद न सुखी हूं और न ही

हूं दुखी

मैं कहीं इन दोनों के बीच झूलता

रहता हूं

मैं भावशून्य हूं

कोई भाव मेरे चेहरे पर दिखता नहीं

कोई फिर जाने भी कैसे मेरी

मानसिक स्थिति या मेरे दिल का हाल

मैं भरसक प्रयत्न करता हूं जब

खुश होने का

दुख मुझे अपनी तरफ खींच लेता है

जब मैं रुआंसा होता हूं

आंखों में नमी होती है

निराश होता हूं

सुख मुझे उकसाता है

प्रेरित करता है

जमीन से उठाकर आसमान में

बिठाना चाहता है

वह मुझे कहता है कि

खुशियों का दामन थाम और

आसमान में फिर से पंख फैलाकर

उड़ान भर

एक चिड़िया की तरह

मैं दुविधा में हूं

सब कुछ त्याग कर जमीन पर

एक अधमरी लाश सा लेटा हूं

दिल के किसी कोने से

या किसी पुराने अनुभव या

बीती हुई मधुर यादों से

मुझे प्रेरणा मिले और

मन में जीने की आशा जगे

काश कि मेरे में ऊर्जा का नया संचार हो।