सोचती तो यही थी कि
भगवान मुझ पर तो रहेगा
हमेशा मेहरबान और
नहीं छूटेगा मेरे हाथों से कभी
मेरे अपनों का हाथ लेकिन
वक्त बड़ा बेरहम होता है
सालों साल नरम होता है फिर
एक दिन अचानक से ही सख्त हो जाता है और
अपना रौद्र रूप आखिरकार
दिखा ही देता है
मेरे आंगन के पेड़ को
वह जड़ समेत उखाड़ कर ले जाता है
उसका कोई अंश
कोई बीज
कोई स्वरूप नहीं छोड़ता कि
मैं उसे फिर से
जीवित कर सकूं
उसे दोबारा वापस पा सकूं
छू सकूं या
देख सकूं
अब तो जो कुछ है
बस मेरे जेहन में है
दिल की घड़ी की सुइयों को
मैं जब तब रोक देती हूं
उनकी यादों के अतीत के
झरोखे के समीप और
कुछ पल उनके साथ बीते हुए
बिता लेती हूं
फिर मेरे हाथ से फिसल कर
छूटते हुए
कहीं दूर जाते हुए
मुझसे बिछड़ते हुए ही
पलों की तरह।