दर्द की चाह
किसे होती है पर
दर्द तो मिलता है बदस्तूर
खुद में ही कहीं खुद के होने की तरह
दर्द का साया
उम्र भर साथ चलता है
पानी की सतह पर बहती किसी
किश्ती की तरह
दर्द के बुलबुले तो फूटते ही रहते हैं
जिस्म के तने से निकलती इसकी
डालियों पर
फूलों की एक बहार की तरह
रंगहीन होते हैं
गंधहीन होते हैं
यह न खुद महकते हैं
न किसी को महकाते हैं
यह तो नश्तर ही चुभाते हैं और
दर्द के दरिया को
एक आंसुओं की धार सा बहाते हैं
बेहिसाब
दर्द तो एक आग का ऐसा दरिया है जो
अंगारों से भरा रहता है
जलता रहता है
जलाता रहता है
शीतलता तो यह कभी दे ही नहीं
सकता
यह इसकी प्रकृति ही नहीं है
दर्द तो एक चाकू है
जिसकी तेज धार
काट देती है शरीर का
हर एक अंग
दिल को बेचैन कर देती है और
आत्मा को घायल
शरीर का पुर्जा पुर्जा हिलाकर उसे
कमजोर कर देती है
पेड़ से ही पतझड़ में झड़कर जमीन पर
गिरे हुए इसके बेजान पत्तों की तरह।