in

तृष्णा: पायल अग्रवाल द्वारा रचित कविता

ना बुझती है, ना मिटती है, बस भीतर रहती है,
कभी प्रेम बनकर, कभी प्रीत बनकर,
कभी शब्द बनकर, कभी मधुर संगीत बनकर.

कभी उठती है लहरों सी,
कभी मचलती है धड़कनों सी,
कभी पलकों के सिरहाने चमक उठती है,
कभी महक उठती है, फूलों पर ओस सी,
कैसी मृगतृष्णा है ये? ओ’ कृष्णा?
ना आदि है, ना अंत है इसका,
रेगिस्तान में मृगमरीचिका सा एहसास,
उफ़.. कैसी है ये प्यास?

अंगार सुलग उठते हैं,
कहीं भीतर जब बादल बरसते हैं,
कभी लिखती हूँ, कभी मिटाती हूँ
कुछ भाव अधूरा रह जाता है,
उसे पूरा करने की चाह में व्याकुल.
मैं समर्पित हो जाती हूँ.

समर्पण का भाव ही है,
जो मुझे उस कस्तूरी से मिलाता है,
प्रीत का अम्बार है, जो अंतर्मन महकाता है,
मंन बावरा मृग सा फिर उसी ओऱ खिंचा चला जाता है!