in

जिंदगी क्या है

आदमी

जिंदगी भर

‘जिंदगी क्या है’

इस पहेली को सुलझाने में

लगा रहता है

इस पहेली को वह

जिंदगी के आखिरी पड़ाव तक भी

हल नहीं कर पाता और

पलक झपकते ही

जिंदगी उसके हाथ से

ऐसे निकल जाती है जैसे कि

पटरियों पर भागती

एक तेज रेलगाड़ी में

खिड़की से बाहर झांककर

देखने पर

आंखों के सामने से

किसी दृश्य का

हट जाना

गायब हो जाना

हाथ न आना

कुछ समझ न आना

पीछे लौटकर देखने का भी

कोई रास्ता समझ न आ पाना।