मेरे मन के
सूनेपन के जंगल के
सन्नाटों को तोड़ती
कोई फोन की घंटी बजती है तो
मेरे तन की शिराओं में
एक नया जोश भरते
रक्त का संचार तो अवश्य ही करती है
मस्तिष्क के पटल पर एक बिजली की आभा सी
कौंधती है
मन के हर कोने में एक मछली
के तन सी हलचल की गुदगुदी सी रेंगती है
मैं मचल जाती हूं एक बालक सी
उछल जाती हूं एक गेंद या गुब्बारे सी
लपक कर उठाती हूं फोन के रिसीवर को
यह सोचती हुई कि
चलो आज के व्यस्त युग में
किसी ने तो मुझे याद किया
फोन की घंटी बजती है तो
मन के तार झंकृत हो जाते हैं
ऐसा लगता है कि कोई
नवयौवना आ रही है
पायल छनकाती,
अपने कंगन बजाती
बेताब होकर
दौड़ी दौड़ी, गिरती भागती
मुझसे मिलने।