कागज़ की कश्ती
तुम महज खेलने के लिये हो या
शीशे की अलमारी में रखकर
सजाने के लिये हो
तुम कितनी छोटी सी,
प्यारी सी और
नाजुक हो
तुम्हें तो छूते हुए भी मुझे डर
लग रहा है
तेज बारिश की बौछार तो
तुम सह नहीं पाओगी
कम पानी के भराव में तुम्हें उतारूं तो तुम
गीली हो जाओगी
धूप जो नहीं निकली तो फिर तुम
खुद को सूखा कैसे पाओगी
कागज़ की बनी हो तो फिर तुम
गल नहीं जाओगी
तुम पर कोई मुसाफ़िर भी हो पायेगा नहीं
सवार
उसके बोझ से तुम दब जाओगी और
अपने अस्तित्व को ही मिटा
बैठोगी
क्या करूं मैं तुम्हारा
अपनी हथेली पर रखकर बस
तुम्हें ताक लेती हूं और
याद करती हूं चलो फिर
संग तुम्हारे मिलकर अपने बचपन के दिनों को
कैसे खेलते थे हम दोनों
साथ साथ
याद भी है कुछ तुम्हें
तुम्हारा साथ भी कितना लंबा रहा
जीवन बीत गया पर
तुमने एक खुली छतरी सा ही हमेशा
मुझे सुरक्षित किया जैसे कि
मैंने तुम्हें
कभी बारिश के पानी में मुझे
भीगने ही नहीं दिया।