उस रात
क्या कुछ अप्रत्याशित घटित नहीं हो
सकता था
वह एक सर्द काली अंधियारी रात थी
देर शाम
सूरज के डूबने के बाद
जब सफर पर निकले तो
सोचा था कि यात्रा सफल होगी
सुबह तक हल्की नींद लेते हुए
खिड़की से बाहर झांकते हुए
कभी शॉल से बाहर
तो कभी उसके अंदर
अपने हाथ, पैरों और चेहरे को
करते हुए
अपनी मंजिल को पाते हुए
रास्ता तय हो ही जायेगा
इसका तो जरा आभास न
था कि
पहाड़ियों से घिरे जंगल में
नदी के किनारे सटी सड़क पर
वाहन एकाएक खराब हो जायेगा
और सब यात्रियों की जान
पर बन आयेगी
कहीं से उम्मीद की कोई किरण
दिखाई नहीं पड़ रही थी
चारों तरफ से हर तरह का खतरा सिर पर
मंडरा रहा था
मेरी बगल वाली सीट पर जो लड़की
बैठी थी
उसके मां बाप उसे लेने कहीं कार से
आ रहे थे
बस मैंने तो उसी का हाथ थाम
लिया
वह सब शरीफ लोग थे
मेरे साथ दो लोग और थे
यानी हम कुल तीन थे
जैसे ही कार आई
हम उनकी मिन्नतें करके
जैसे तैसे ठूंस ठूंसाकर उस कार में
बैठ गये और
आगे का रास्ता तय किया
सही सलामत बस अड्डे पर
पहुंच गये
लेकिन बस में जरूरत से
ज्यादा भीड़ थी
कोई सीट नहीं
कंडक्टर से जैसे तैसे बात
कर कराके
बस में तीनों चढ़ पाये और
घुस घुसाकर इधर उधर कहीं
बैठ गये
वह लड़की तो भीड़ देखकर घबरा
गई और
अपने मां बाप के साथ वापिस
अपने शहर,
अपने घर को लौट गई
असुविधा और कष्ट बहुत
उठाया लेकिन
जैसे जैसे अपनी
मंजिल करीब आई
ऐसा लगा जैसे कि
किसी मुर्दे शरीर में
जान आई।