मैं नहीं रहूंगी तो
घर में उत्सव कौन मनायेगा
जब तक रहो जीवित तो
बिना किसी कारण
उत्सव मनाते रहो
उत्सव हर क्षण मनाते रहो
मन ही मन मनाते रहो
हर पल को खुश होकर जियो
हर दृश्य को अपनी आंखों के कैमरे में
कैद करो
हर बात को कान खोलकर पूरे मनोयोग से सुनो
हर मौसम के रंग को अपने आंचल में
भरो
हर किसी को अपना मानकर
साथ लेकर चलो
दीपावली पर ही केवल अपना घर रोशन
न करो अपितु
अपने घर की देहरी पर हर सांझ
एक मिट्टी का दीपक जलाओ
यह भी न कर पाओ तो
मन के मंदिर में
शंखनाद करके एक दीपोत्सव
मनाओ
होली का इंतजार मत करो
रंगो का उत्सव मनाने के लिए
पानी के छींटे मारकर
एक दूजे पर या
बारिश की बौछार में
भीगकर भी
पानी की होली
मना लो
उत्सव मनाने के लिए
कोई दिन या
मौका न तलाशो
यह तो है मन का एक
भावपूर्ण खेल
मन की एक रचनात्मक
अवस्था
मन की एक कलात्मक
अभिव्यक्ति
उत्सव तो है
एक अपने दृश्यपटल पर
हर पल ही उभरती ऐसी
जीवंत रंगोली
जिसमें जब चाहो
अपनी इच्छानुसार रंग भर लो
उन्हें जी भरकर निहार लो
उनसे खेल लो
उन्हें अपने हृदय में एक
स्थायित्व को प्राप्त करते
चित्र सा ही स्थान दो
उन्हें चाहो तो मिटा लो
फिर नये रंग भरकर
एक नया आकार देकर
अपने मन के सपने सा ही
सजा लो
उत्सव तो एक बंधन है
अपने ही हाथ की कलाई पर
बंधा एक प्रीत का धागा
इसे तो खुद से ही बांध लो
हमेशा के लिए बांध लो
इस बंधन को स्वीकार लो
इसे प्यार करो
उत्सव स्वयं मनाओ
कोई न मनाये तुम्हारे लिए तो
इसके लिए न उसकी कोई
दरकार करो।