सांझ की बेला
कितनी मनोहरी प्रतीत होती है
मन के हर कोने को छूती है
तन के वृक्ष में संवेदनाओं की
अनुभूति से भरे बीज से बो देती है
आत्मा के घोंसले से
निकलती हैं फिर
कल्पनाओं की चिड़ियायें
परियों के भेष में
कुछ समय ही शेष है
इनके हाथों में
कुछ देर विचरना है लेकिन
अंततः तो हर किसी को
अपने अपने आशियानों में
लौटना ही है
एक बसेरा तो जमीं पर है
दूसरा कहीं है
आसमान के उस पार भी
यह कोई नहीं जानता कि
आज इस घर तो
कल उस घर जाने का
कुदरत का इशारा कब
हो जाये।