बचपन में
कथाओं में दैत्य, राक्षस
एक बड़ा ही कुरूप और भयावह प्राणी
मिला करते थे
यह अनुभव बचपन की कहानियों तक ही
सिमटकर रह जाता तो कितना अच्छा होता
किताबों के बंद तहखानों में से
निकलकर आजकल तो लगता है
यह इंसानों का भेष धर कर
हर जगह
हर कोने में
चप्पे चप्पे पर एक बड़ी तादाद में
रूबरू मिलने लगे हैं
आजकल का मानव
देखा जाये तो एक अच्छा आदमी अब है कहां
उसमें इंसानियत का अंश
नाम मात्र को शायद ही बचा है
वह तो दानव बन चुका है
इस दुनिया में अब एक जंगलराज
चलता है
हर आदमी दूसरे आदमी पर
एक पशु की भांति
हिंसक और अमानवीय प्रहार कर रहा है
लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हैं
एक दूसरे को खा रहे हैं
मार रहे हैं
जिन्दा जो है उसे तड़पा रहे हैं
उन्हें जीवित एक कोबरे सा निगल
रहे हैं
चारों तरफ एक चीख पुकार
चीर फाड़
दहशतगर्दी का माहौल है
किस्मत से जो बच गया
वह बच गया
जो फंस गया वह तो समझो
फिर जीते जी मर गया
हम सबको चाहिए कि
हम खुद में सोये इंसान को
जगायें और
खुद के अंदर जीवित और
आजकल ज्यादा सचेत
और क्रियाशील राक्षस का
वध करें या
इसे एक गहरी नींद सुलायें
हमेशा के लिए।