नदी का किनारा
जल की धारा
पवन सुगन्धित
मन प्रफुल्लित
फूल खिले मन में
नाव चले तन में
चांद निकले दिन में
सूरज छिपे अंधियारे घने बन में
नदी की जल तरंग एक फूटे आत्मा की
चितवन में
वह बजे एक पायल की झंकार सी
बदन के रोम रोम में
नदी के किनारे फैलें
मृगतृष्णाओं के न जाने कितने भंवर
किनारे को साथ लिए लिए
इसके संग बहे न जाने
कितनी समानान्तर धाराओं के जल
कहानी कभी इसकी पूरी
कभी मेरी अधूरी
कभी मेरी पूरी तो
इसकी अधूरी
अपूर्ण सी ही मैं
उठ कर चल देती कहां
फिर कभी लौटकर आऊंगी
नदी के किनारे
पूर्णता को प्राप्त करने।