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अनजाने रास्ते… : डॉ. सुबूही जाफ़र द्वारा रचित कविता

शहर अनजाना, रास्ते भी अजनबी हैं,
इस राह पे चलते हुए आँखों में इक नमी है,
हर सूँ है भीड़, हर सूँ चहल-पहल है,
लेकिन मेरे आसपास सन्नाटा सा क्यों है|
क्यों आज भी मेरे दिल का एक कोना ख़ाली है,
क्यों होंठों पे मुस्कान, आँखों में उदासी है,
क्यों रहनुमा के होते हुए भी रास्ता नहीं है,
क्यों भीड़ में भी हर चेहरा अजनबी है|
जिस चेहरे की तलाश है, वो क्यों नज़र नहीं आता,
जिसके लिए दिल बेक़रार है, उसे मेरा ख़याल क्यों नहीं आता,
क्यों ख्वाहिशों की कश्ती को किनारा नहीं मिलता,
क्यों हर मुसाफ़िर को ठिकाना नहीं मिलता|
दिल के ज़ख्मों को भुलाने के लिए, शहर बदल दिया मैंने,
रास्ते बदल दिए, ख़ुद को बदल दिया मैंने,
सोचा, अनजाना शहर होगा, अनजाने रास्ते होंगे,
तुझे भूलने के वो मरहले वास्ते होंगे|
लेकिन हर पल याद आता है, तेरे साथ बीता हुआ हर एक पल,
हर याद के साथ ताज़ा हो जाता है ज़ख्म-ए-दिल,
ये ज़ख्म चीख़- चीख़ कर पुकारते हैं मुझे,
तू चलती रह, मंज़िल तक ले जाएँगे यही अनजाने रास्ते|