in

शाम के धुंधलके में

शाम के

धुंधलके में

मुझे जिंदगी की राहें दिखनी

बंद हो जाती हैं

मैं सुबह से अकेली

काम करती करती

खुद से जूझती जूझती

जिंदगी से लड़ती झगड़ती

कभी जीतती कभी हारती

कभी रोती कभी मुस्कुराती

कभी इसका हाथ पकड़ती

कभी इससे अपनी जान बचाती

कभी यह मुझे पकड़ती

कभी छोड़ देती

कभी मैं इसके पीछे भागती

कभी थककर अपने ही आगोश में

कहीं सिमटकर बैठ जाती

यह खेल तो चलता रहेगा

वक्त का दरिया

कभी मुझसे आगे

कभी मुझे पीछे छोड़ता

कभी मुझे साथ लिए

कभी मेरे साथ के बिना

यूं ही बहता रहेगा

मैं शाम होते ही

मन को शांत करना

चाहती हूं

अपने लिए कुछ पल निकालना

चाहती हूं

दिल में हो रही उथल पुथल को

विराम देना चाहती हूं

कल की या

अगले पल के बारे में

कुछ सोचना नहीं चाहती

कोई योजना

बनाना नहीं चाहती

कहीं कोई संभावना

तलाशना नहीं चाहती

मुझे तो बस रात का

बेसब्री से इंतजार है और

आसमान की काली

सितारों से टिमटिमाती

एक चादर पर

चांद के निकलने का

मैं तो बस उसे जी भरकर

निहारना चाहती हूं

अपनी आंखों को

इसकी सुंदरता की

शीतलता के सुखद

अहसास से भरना चाहती हूं।

मीनल

सुपुत्री श्री प्रमोद कुमार

इंडियन डाईकास्टिंग इंडस्ट्रीज

सासनी गेट, आगरा रोड

अलीगढ़ (उ.प्र.) – 202001

Leave a Reply